• Dinesh Saini

मेरा मन

मैंने देखा

पिंजरे में क़ैद एक पंछी को

असहाय और छटपटाता हुआ

अपनी आज़ादी के लिए


उसे देखकर आया एक ख़्याल

मेरा मन भी तो था

उस पंछी की तरह

समाज के रीति-रिवाज़ों

और बन्धनों में क़ैद..

मेरा मन भी तो तड़प रहा था

अपनी आज़ादी के लिए..

आज़ादी का हक़ तो सभी को था,

फिर क्यों आज़ाद नहीं थे

वो पंछी और मेरा मन....


खोल दिए है अब दरवाज़े

मैंने पिंजरे के

कर दिया आज़ाद उस पंछी को,

और अपने मन को भी..

दे दिए है उसे उम्मीदों के पंख

उड़ चला है मन मेरा

दूर उस नीले गगन में

जहाँ कोई सीमा न होगी,

कोई बंधन न होगा .....


उड़ चला है मन मेरा

नयी राहों, नए ख़्वाबों की तलाश में...

उड़ चला है मन मेरा

अनंत तक साथ देने वाले

एक हमसफ़र की तलाश में


खो गया हूँ मैं

जीवन के अंधियारों में कहीं

उड़ चला है मन मेरा

अब मेरी तलाश में......


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