• Neelima Singh

मुक्तिबंधन

एक ही छत से दो पतंगें उड़ीं


उड़ते, उछलते, इठलाते, इतराते ।

देखते ही देखते दोनों पतंगे,

करने लगीं हवा से बातें ।

एक आगे निकलती तो ,

दूसरी भी उसकी होड़ करती ।

थोड़ा और ढील पा कर -

आसमानी पटरी पर दौड़ जाती ।


तभी हवा का रुख बदला ,

और पतंगे उलझ गयीं ।

अब दोनों पतंगों में ठन गयी ,

एक कुछ ज्यादा ही तन गयी ।

आ गया उसे जोश कुछ ज्यादा

और दूसरी पतंग कट गयी ।


जिस पतंग ने काटा -

उसने गर्व और उल्लास का पर्व मनाया

और इठलाते इतराते अपनी छत पर उतर आयी

वहीँ जहां से उड़ना शुरू किया था ।


कटी पतंग उड़ती गयी , उड़ती गयी

बहुत ऊंचे , बहुत दूर |


मैदान में नीचे खेलते अपने पीछे दौड़ते,

हँसते, चिल्लाते, चहचहाते बच्चों को देखा ।

बाग़, खेतों खलिहान से गुज़री तो -

फूलों फसलों को लहलहाते देखा ।

नदियों को देखा, नालों को देखा ,

तो कहीं घास चराते ग्वालों को देखा ।


उसे कुछ और भी दिखा -

अरे यह तो वही पतंग थी

जो उसके साथ अभी कुछ देर पहले उड़ी थी ।

जिसकी वजह से वह कटी थी ,

वो पतंग अपने घर जा रही थी ।

अकेले सर झुकाये ,

अपनी चरखी और मंझे से लिपटी हुयी |


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